मीडिया का एक वर्ग लंबे समय से पाठकों और दर्शकों को शब्दों का खेल कर किस तरह से बरगला रहा है, वह छिपा नहीं है। दो समुदायों से संबंधित खबर को कवर करते हुए अधिकतर संस्थानों का यह दोहरा रवैया देखने को मिल जाता है।
हालिया मामला खुद को देश का सबसे विश्वसनीय और नंबर 1 अखबार बताने वाले दैनिक भास्कर से जुड़ा है। दैनिक भास्कर में दो अलग-अलग दिनों पर प्रकाशित दो खबरों से आप समझ सकते हैं कि कैसे हिंदू धर्म की कुरीति पर बात करते हुए ज्ञानी हो जाने वाला अखबार, दूसरे मजहब की बात आते ही किसी कुरीति को भी ऐसे परोसते हैं, जैसे मामला हँसी-ठिठोली का हो।
19 नवंबर को दैनिक भास्कर में राजस्थान के कुछ हिस्सों में चलने वाली ‘कोना प्रथा’ की कुरीति पर छपती है। अखबार ने जायज सवाल उठाया है कि आखिर पति की मौत के 6 महीने बाद भी एक विधवा को क्यों कोने में सिमटकर रहना पड़ रहा है? क्यों प्रथा के नाम पर उसे उजाला होने से पहले घर के हर काम करवाए जाते हैं और बाद में उसे अंधेरे में ढकेल दिया जाता है।
दैनिक भास्कर की यह कवरेज सराहनीय है। उनका सवाल कि एक विधवा को कोने में डाले रखना प्रथा है या सजा, बिलकुल जायज है। उनका आरोप कि स्त्री के ऊपर इतना अत्याचार पुरूष प्रधान समाज के कारण हो रहा है, बिलकुल सटीक है।
