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हमर सरगुजा कर जाड़ा, असों नई जाये अस करथे – संतोष सरल

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सरगुजा क्षेत्र में इन दिनों पड़ रही कड़ाके की ठंड पर मेरी “सरगुजिहा रचना”

भारत सम्मान, अम्बिकापुर – समुचे विश्व में अपनी-अपनी भाषा और बोली का एक अलग महत्व रहता है, ठीक उसी को मद्देनजर रखते हुए कवि संतोष सरल अंबिकापुर (सरगुजा) के मूलतः रहने वाले हैं, इनके द्वारा छत्तीसगढ़ का शिमला कहे जाने वाली मैनपाट व सरगुजा की ठंड के बारे में उन्होंने सरगुजिया बोली में छः पैराग्राफ रचना लिखी है जो इस प्रकार है।

हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
   असों नई जाये अस करथे…
ऐ धाऐर मौसम कर पारा, 
   काबर नई चढे़ अस करथे…

1.
दाऊ गईसे ढीले बईला, 
      रांधे दाई पेज लकरा..
ददा भऊजी तापें आगी, 
      नरियाये चियां बोकरा..
आन गांव कर गोरू भंईसा, 
      ऐदे हमर बारी मा चरथे…
हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
      असों नई जाये अस करथे…

2.
हालु-हालु बुड़थे बेर, 
      बुता-काम नई सिराथे…
 साग-भात खाथें हालु, 
      आगी गोरसी जलाथें…
मिस-मिस के माखुर ऐदे, 
      कोटवारो नई चिकरथे…
हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
      असों नई जाये अस करथे…

3.
एक बिहाने उईठ जाथें, 
      हमर कका-काकी…
चईल देथें खेते ठुरूक, 
      नईच मानें गऊकी…
उईठ देखेन महूं मितान, 
      हाथ-गोड़ मन ठरथें…
हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
      असों नई जाये अस करथे…

4.
गोएठ बात सियान मन के, 
      रईथें सुनत टूरी-टूरा…
अंगरा घलो बूईझ जाथे, 
      कहनी-किस्सा होथे पूरा..
मीठ बोली में सबे झन, 
     अपन पुरखा ला सुमरथें…
हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
     असों नई जाये अस करथे…

5.
धान-पान सब्जी-साग, 
     ए धाऐर होईसे जी बढिया…
कुशियार रस ले बनही गुड़, 
    भात चाऊर ले हड़िया…
हमर दरूहा कसन बाड़ा, 
    देखा पी के सबला भड़थे…
हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
    असों नई जाये अस करथे…

6.
सरगुजा के माटी सुघ्घर, 
    खेत जंगल नदी पहाड़…
मैनपाट कहाथे शिमला, 
    प्रकृति हवे इहां कमाल…
चमेली-गोंदा फूल अबड़, 
   हमर गांवें घरे गमकथे…
हमर सरगुजा कर जाड़ा, 
  असों नई जाये अस करथे…
ऐ धाऐर मौसम कर पारा, 
  काबर नई चढे़ अस करथे…

Bharat Samman

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