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बसेरा नामक शीर्षक की लघुकथा सम्पति चौरे की कलम से

भारत सम्मान, लेख – श्यामसुंदर जी के पत्नी के स्वर्गवास हो जाने के बाद वह गांव को छोड़कर बेटे और बहू के साथ रहने शहर आ गए। बेटा अक्सर अपने ऑफिस के कामो में व्यस्त रहता, पिता का ख्याल रखने और हालचाल पूछने की ठीक से उसे समय  नहीं मिल पाता था। बहू भी घर के काम तथा अपने सहेलियों से मोबाइल में बात करने से उसे फुर्सत कहां? दो पोते थे वे भी बड़े हो गए तो अध्ययन करने विदेश चले गए थे।

श्यामसुंदर जी को अकेलापन खुब खलता, भौतिक सुख-सुविधा वाले मकान में उसे बड़ी बेचैनी लगती जहां वह रहता उस कॉलोनी के पास एक छोटा सा बगीचा था। वह वहां सुबह-शाम टहलने जाया करता कुछ पल बगीचे में आराम करने से मन को बड़ी शुकून और खुशी मिलता था। बगीचे का हरा-भरा वातावरण, रंग-बिरंगे फूल, तितलियां शुद्ध हवा और पंक्षियों की चहचहाहट बगीचे की सौंदर्य में चार चांद लगा लगा रहें थे।

श्यामसुंदर जी पंक्षियों के लिए प्रतिदिन अनाज का टुकड़ा एंव मिट्टी के मटके में पानी भर पेड़ो के नीचे रख दिया करते, अब बगीचे में तरह-तरह पंक्षियां भी खुब सारे आने लगे। श्यामसुंदर जी अचानक अस्वस्थ हो गए और कुछ दिनो तक घर से नहीं निकले। एक रोज वे घुमने बगीचे की ओर गए वहां पर देखा कुछ लोग मिलकर पेड़ो को काट रहे थे। उन लोगो को देखकर बड़ा आश्चर्य! हुआ उसने एक आदमी से पुछा भाई आप इन पेड़ों को क्यो काट रहें हो? वह आदमी बोला-हमारे साहब ने इसे काटने को कहा है। यहां पर बड़ा  सा दुकान (माॅल) बनेगा उनकी यह बात को सुनकर श्यामसुंदर जी को बड़ी आघात लगा।

फिर वे मन में सोचे यह बसेरा भी पंक्षियों और उसका लुट चुका था, अब  वे उनसे हमेशा के लिए अलग हो गए थे। उसी वक्त उसने फैसला लिया कि वह गांव में ही रहेंगे, पंक्षियों और हरे भरे वृक्षो के बीच जहां उसे कोई दुसरा बसेरा ढूंढना नहीं पड़ेगा।

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